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क्या UP में BJP की 2014 जैसी लहर चल रही है ?

उत्तर प्रदेश में क्या इस बार फिर से बीजेपी की वैसी ही लहर चल रही है जैसी कि 2014 लोकसभा चुनावों के दौरान चल रही थी? ये सवाल इसलिए भी खड़ा हो रहा है क्योंकि राज्य की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी में में वर्चस्व की लड़ाई खुलकर सामने आ गई है और दूसरी तरफ मायावती की बहुजन समाज पार्टी बिखरी हुई नजर आ रही है.

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  • Last Updated: January 6, 2017 14:38:07 IST
लखनऊ:  उत्तर प्रदेश में क्या  इस बार फिर से बीजेपी की वैसी ही लहर चल रही है, जैसी कि 2014 लोकसभा चुनावों के दौरान चल रही थी? ये सवाल इसलिए भी खड़ा हो रहा है क्योंकि राज्य की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी में वर्चस्व की लड़ाई खुलकर सामने आ गई है, और दूसरी तरफ मायावती की बहुजन समाज पार्टी बिखरी हुई नजर आ रही है. ऐसे में बीजेपी को राज्य में जमकर राजनीति करने का मौका मिल रहा है. लेकिन इन सबके बावजूद कुछ ऐसे तथ्य भी हैं जिन्हें निश्चित तौर पर बीजेपी को कतई नजरअंदाज नहीं करने चाहिएं
 
लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के कुछ ही महीनों बाद उन सीटों पर भी उपचुनाव हुए जहां से बीजेपी के 11 विधायक मोदी लहर के दम पर लोकसभा के सांसद चुने गए थे, लेकिन बीजेपी के हाथ सिर्फ तीन सीटें आई थीं. समाजवादी पार्टी ने 8 सीटें जीती थीं.
इन सीटों में बीजेपी रोहनिया विधानसभा की सीट भी हार गई थी जो प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में आती है.जबकि समाजवादी पार्टी ने मैनपुरी के लोकसभा उपचुनाव भी जीत लिया था. यहां की सीट मुलायम सिंह यादव ने छोड़ी थी.
2016 में भी दो विधानसभा उपचुनाव हुए थे जिनमें बिलारी और जंगीपुर की सीट सपा ने बीजेपी प्रत्याशी को भारी अंतर से हरा दिया था.
इन परिणामों से साफ जाहिर हो गया है कि चुनाव में किसी भी पार्टी की जीत आने वाले चुनाव में जीत की गारंटी नहीं हो सकती है. इस बात को भारतीय जनता पार्टी बिहार इलेक्शन में भी नहीं शायद नहीं समझ पाई थी.
2014 के लोकसभा चुनाव में अपना दल के साथ मिलकर बीजेपी ने 80 में से 73 सीटें जीत ली थीं. जिसमें वोट शेयर 43 फीसदी था. अगर इसको विधानसभा सीटों में बदलते हैं तो हिसाब से बीजेपी के खाते में 403 सीटों में 338 सीटें आ रही थीं.
मतलब साफ था कि अगर उसी समय विधानसभा चुनाव हो जाते तो बीजेपी 80 फीसदी सीट जीत ले जाती है. इससे पहले ऐसा करिश्मा आपातकाल के बाद सिर्फ जनता पार्टी ही कर पाई थी. लेकिन इसके बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी भी बुरी तरह हार गई थी. 
2014 से 2016 के बीच क्या बदल गया ?
सवाल इस बात का उठता है कि इन दो सालों में ऐसा क्या बदल गया कि 2014 में जोरदार प्रदर्शन करने वाली बीजेपी विधानसभा उपचुनावों में सिर्फ 13 में से 3 ही सीटें ही जीत पाई.
दरअसल 2014 में बीजेपी को सबसे बड़ा फायदा इस बात का मिला कि उस चुनाव में बीएसपी पूरी तरह गायब हो गई थी. जिसकी वजह से राज्य में बीजेपी और सपा के बीच सीधी लड़ाई हुई. 
बीएसपी  की मजबूती बीजेपी को फायदा ?
यह कहना गलत न होगा कि विरोधी पार्टियां जब भी एक होती है बीजेपी की हार होती है. उत्तर प्रदेश में भी बीएसपी के मजबूत होने से सिर्फ बीजेपी विरोधी पार्टियों को ही नुकसान होगा.
लोकसभा चुनाव में देखा गया है कि बीएसपी के खाते में जाने वाला वोट बीजेपी के खाते में एकमुश्त गया था क्योंकि बीएसपी के वोटबैंक का बड़ा हिस्सा सपा के विरोध में रहता है. 
लेकिन इस बार खुद बीएसपी भी मजबूत लड़ाई में है और निश्चित तौर पर इसका असर सपा और बीजेपी को दोनों पर पड़ेगा.
बीजेपी को हराने की चाभी किसके पास ?
अगर बीजेपी 2014 में मिले वोटों को फिर से पाने में कामयाब होती है तो उसको मायावती तभी हरा सकती हैं जब वह विपक्षी दलों को मिलने वाले सभी वोटों को अपने पाले में कर सकें और उनका दलित वोटबैंक एकमुश्त बीएसपी को ही जाएं. सीधे तौर पर कहें तो बीएसपी या सपा में से कोई एक पूरी तरह लड़ाई से बाहर हो जाए.
कांग्रेस का वोट प्रतिशत यूपी में अभी भी 8 से 12 प्रतिशत पर है. अगर सपा या बसपा में से कोई एक इसमें सेंध लगाने में कामयाब हो जाए तो बीजेपी के लिए मुश्किल हो सकती है. अगर कांग्रेस अपने दम पर लड़ाई में आ जाती है तो इस हालात में सपा और बीएसपी अकेले बीजेपी को नहीं हरा पाएंगी.
दूसरा, देखने वाली बात यह होगी कि बीजेपी को लोकसभा चुनाव में मिला वोट शेयर कितना गिरता है और ये किसके खाते में ज्यादा से ज्यादा जाता है क्योंकि 2012 के विधानसभा चुनाव अखिलेश मात्र 29.5 फीसद वोट लेकर भी बड़ी जीत दर्ज की थी ऐसे में अगर बीजेपी 10-12 फीसद वोट का नुकसान भी झेलती है तो भी उसको जीतने से कोई नहीं रोक सकता है.
ऐसी स्थिति में बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस का बीएसपी या सपा के साथ गठबंधन होना जरूरी है क्योंकि उसके 8 से 12 फीसद वोट बीजेपी को मुश्किल में डाल सकते हैं.
शायद यही वजह है कि समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन की ओर बढ़ रही है. मायावती पहले ही अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी हैं.

 

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