नई दिल्ली. डीजल- पेट्रोल की कीमतों को लेकर मचे कोहराम के बीच केंद्र व एक दर्जन से अधिक राज्यों ने एक्साइज ड्यूटी व वैट में कटौती कर पांच रुपये की राहत दी है लेकिन यह राहत अस्थाई है. अगले महीने से अमेरिका जब ईरान पर दूसरे चरण का प्रतिबंध लागू करेगा तब स्थिति और बिगड़ने की आशंका है. पेट्रोलियम उत्पाद को लेकर देश-दुनिया की अपनी सियासत है. पहले गौर करते है उस देसी गणित की जिसमें असलियत दिखती नहीं और जो दिखती है वो असलियत होती नहीं.
भारत अपनी कुल खपत का 80 फीसद डीजल-पेट्रोल आयात करता है और 20 फीसद खुद उत्पादित करता है. मोटे तौर पर यदि आंकड़ों की बात करें तो जितने का आयातित डीजल पेट्रोल पड़ता है लगभग उतना ही उस पर एक्साइज व वैट लगता है. चूंकि विभिन्न राज्यों में वैट की दरें अलग-अलग है, इसलिए कीमत भी अलग होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में जब डीजल- पेट्रोल की कीमतें बढ़ रही होती है तब सरकार भी उस बढ़ी कीमत पर और ज्यादा टैक्स वसूलकर मालामाल हो रही होती है. पहले यूपीए सरकार ने पेट्रोल को और बाद में मौजूदा सरकार ने डीजल को डिकंट्रोल किया था.
इस सरकार ने डीजल- पेट्रोल पर नौ बार एक्साइज बढ़ाया और दो बार घटाया है, इसके बावजूद डीजल पर लगभग 14 रुपये और पेट्रोल पर 19 रुपये एक्साइज ड्यूटी वसूल रही है. खुद वित्त मंत्री अरूण जेटली बता चुके हैं कि इस बढ़ोत्तरी से सरकार को पिछले वित्त वर्ष में 229019 करोड़ मिला जबकि 2014-15 में यह महज 99184 करोड़ था. पिछले दिनों आरटीआई से मिली जानकारी में भी यह बात साफ हो गई थी कि भारत जिन देशों को डीजल- पेट्रोल बेचता है उसे लागत दर पर देता है जबकि अपने देश में उसे दोगुने दर से भी अधिक दर पर बेचता है. इस तरह एक बात तो साफ है कि पेट्रोलियम उत्पाद को केंद्र व राज्य सरकारों ने कमाई का जरिया बना लिया है.
फिलहाल केंद्र सरकार इसलिए परेशान है कि डालर के मुकाबले रोज टूट रहे रुपये ने पूरी अर्थव्यवस्था को रुलाकर रख दिया है. सेंसेक्स गिर रहा है और आयात बढ़ने से चालू खाते का घाटा बढ़ रहा है लेकिन पांच राज्यों के आसन्न चुनाव और महंगाई बढ़ने के खतरे ने सरकार को एक्साइज व वैट घटाने को मजबूर कर दिया. सवाल उठता है कि जो सरकार लगातार तर्क दे रही थी कि डीजल- पेट्रोल की कीमतें घटाना उसके हाथ में नहीं है उसने अचानक न सिर्फ एक्साइज घटाया बल्कि तेल कंपनियों को भी एक रुपये का बोझ बर्दाश्त करने को कहा. यही नहीं राज्य सरकारों से भी वैट घटाने को कहा.
अब बात उस अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति की जिसके आगे सभी बेबस हैं. दरअसल तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक की अपनी अलग सियासत व रणनीति है. कब उत्पादन घटाना और कब बढ़ाना है वो खुद तय करते हैं. इस धंधे में होने वाली सट्टेबाजी, कोढ़ में खाज की तरह है. इस बीच तुर्की की मुद्रा लीरा के लड़खडाने, तेल उत्पादक देश वेनजुएला पर अमेरिका व यूरोप के प्रतिबंध तथा ईरान पर अगले महीने से लगने वाले दूसरे चरण के प्रतिबंध से भी तेल में आग लगी हुई है. अमेरिका का भारत पर दबाव है कि वह ईरान से तेल न खरीदे.
वेनेजुएला के कुल निर्यात में 96% हिस्सेदारी अकेले तेल की है और प्रतिबंधों की वजह से तमाम देशों ने उससे तेल खरीदना बंद कर दिया है जिससे उसकी अर्थव्यवस्था एकदम बैठ गई है और डीजल-पेट्रोल की कीमतें आसमान छूने लगी है. विश्लेषक भविष्यवाणी कर रहे हैं कि पेट्रोल शतक लगा दे तो आश्चर्य नहीं. ऐसे में सवाल उठता है कि इस समस्या का समाधान क्या है. यदि भारत के संदर्भ में बात करें तो एथेनॉल का प्रयोग बढ़ाने, सीएनजी को बढ़ावा देने और ऊर्जा के वैकल्पिक श्रोत तलाशने, मसलन जल्दी से जल्दी इलेक्ट्रिक वाहन उतारने, और इसके लिए लोगों को प्रेरित करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. तत्काल थोड़ी राहत डीजल-पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाने से भी मिल सकती है. केंद्र सरकार ने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है लेकिन उसमें काफी देर हो चुकी है और स्थिति प्यास लगने पर कुंआ खोदने वाली बन गई है.
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