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…तो झंडा गीत में ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ की जगह होता ‘नमो नमो’

'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा...' ये झंडा गीत तो हम सबने कई बार सुना होगा और गुनगुनाया होगा, लेकिन सोचिए आपको ऐसा झंडा गीत गुनगुनाना पड़ता, जिसमें आपको आखिर में राष्ट्रगान के जय हो की तरह ‘नमो-नमो’ कहना पड़ता. लेकिन ये वाकई में होने जा रहा था पूरा गीत भी लिखकर तैयार हो चुका था लेकिन उस गीत को लिखने वाले श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’ को खुद ही लगा कि मामला जम नहीं रहा, एक दूसरा गीत भी लिखना चाहिए और इस तरह से रचना हुई 'झंडा ऊंचा रहे हमारा..' गीत की.

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  • Last Updated: September 15, 2017 18:22:38 IST
नई दिल्ली. ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा…’ ये झंडा गीत तो हम सबने कई बार सुना होगा और गुनगुनाया होगा, लेकिन सोचिए आपको ऐसा झंडा गीत गुनगुनाना पड़ता, जिसमें आपको आखिर में राष्ट्रगान के जय हो की तरह ‘नमो-नमो’ कहना पड़ता. लेकिन ये वाकई में होने जा रहा था पूरा गीत भी लिखकर तैयार हो चुका था लेकिन उस गीत को लिखने वाले श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’ को खुद ही लगा कि मामला जम नहीं रहा, एक दूसरा गीत भी लिखना चाहिए और इस तरह से रचना हुई ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा..’ गीत की.
 
वैसे ‘नमो-नमो’ भी होता तो शायद किसी को तब कोई परेशानी होती भी नहीं. किस को पता था करीब 90 साल बाद ऐसा वक्त भी आएगा जब नमो नमो गाना तो दूर लिखना या बोलना भी पॉलटिकल या किसी पार्टी विशेष से जोड़कर देखा जाएगा. कौन थे श्याम लाल पार्षद और क्यों उन्हीं से लिखवाया गया ये गीत उससे पहले पढ़िए उनके द्वारा लिखा गया पहला झंडा गीत नमो-नमो….
‘राष्ट्र गगन की दिव्य ज्योति राष्ट्रीय पताका नमो नमो।
भारत जननी के गौरव की अविचल शाखा नमो नमो।
कर में लेकर इसे सूरमा, कोटि-कोटि भारत संतान।
हंसते-हंसते मातृभूमि के चरणों पर होंगे बलिदान।
हो घोषित निर्भीक विश्व में तरल तिरंगा नवल निशान।
वीर हृदय हिल उठे मार लें भारतीय क्षण में मैदान।
हो नस-नस में व्याप्त चरित्र, सूरमा शिवा का नमो-नमो।
राष्ट्र गगन की दिव्य-ज्योति राष्ट्रीय पताका नमो-नमो।।
उच्च हिमालय की चोटी पर जाकर इसे उड़ाएंगे।
विश्व-विजयिनी राष्ट्र-पताका, का गौरव फहराएंगे।
समरांगण में लाल लाड़ले लाखों बलि-बलि जाएँगे।
सबसे ऊँचा रहे, न इसको नीचे कभी झुकाएंगे।।
गूंजे स्वर संसार सिंधु में स्वतंत्रता का नमो-नमो।
भारत जननी के गौरव की अविचल शाका नमो-नमो।’
 
दरअसल, श्याम लाल गुप्त कानपुर के पास नरवल कस्बे के रहने वाले थे, विशारद की उपाधि हासिल करने के बाद वो कानपुर में ही प्रताप अखबार निकाल रहे गणेश शंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में आ गए. उनके विचारों के प्रभाव से वो स्वतंत्रता आंदोलन से भी जुड़ गए. उन्होंने सचिव नाम से एक एक मासिक पत्रिका का सम्पादन प्रकाशन शुरू कर दिया. इस पत्रिका के कवर पर उनकी लिखी ये पंक्तियां छपी रहती थीं—
‘राम राज्य की शक्ति शांति सुखमय स्वतंत्रता लाने को,
लिया ‘सचिव’ ने जन्म देश की परतंत्रता मिटाने को.’
धीरे-धीरे श्याम लाल गुप्त अपने व्यंग्य वाणों और कविताओं के चलते चर्चा में आने लगे. गणेश शंकर विद्यार्थी तो उनके मुरीद ही हो गए थे. एक बार तो उन पर व्यंग्य लिखने की वजह से अंग्रेज सरकार ने 500 रुपए का जुर्माना लगा दिया. इधर जब ये तय हुआ कि 1925 में कानपुर में कांग्रेस का अधिवेशन होना है तो कानपुर के सारे कांग्रेसी तैयारियों में जुट गए. उस वक्त तक कांग्रेस अपने झंडे को तो अंतिम रुप दे चुकी थी, लेकिन कोई झंडा गीत नहीं था. ऐसे में गणेश शंकर विद्यार्थी ने ये जिम्मेदारी श्यामलाल गुप्त जी को दी. 1925 के अधिवेशन में ये झंडा गीत गाया जाना था और वक्त बहुत कम था.
 
वो लिखने बैठ गए देर रात हो गई तो उन्हें कुछ लाइनें सूझी और वो लिखते चले गए. राष्ट्र गगन की दिव्य ज्योति राष्ट्रीय पताका नमो नमो…. लिख तो गया लेकिन पार्षदजी कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते थे, उन्हें लगा कि आम जनसमुदाय के लिहाज से ये गीत थोड़ा कठिन लगता है. उन्होंने थोड़ा सरल लाइनों में एक और गीत लिखना शुरू कर दिया, तब जाकर रचना हुई झंडा ऊंचा रहे हमारा, विश्व विजयी तिरंगा प्यारा की…. गणेश शंकर जी को ये गीत काफी पसंद आया, गांधीजी को दिखाया गया, उन्होंने थोड़ा छोटा करने की सलाह दी, 1925 के अधिवेशन में ये गाया भी गया. लेकिन झंडा गीत के तौर पर उन्हें आधिकारिक मान्यता दी 1938 के हरिपुरा अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने. हालांकि जलियां वाला बाग कांड की स्मृति में 13 अप्रैल 1924 को कानपुर के फूलबाग मैदान में हजारों लोगों के सामने ये गीत उन्होंने सबसे पहले गाया था. नेहरू भी उस सभा में मौजूद थे.
 
बाद में वो स्वतंत्रता आंदोलनों में कुल आठ बार जेल गए, 6 साल जेल में गुजारे. समाज सेवा के भी कई कामों में लगे रहे, साथ में कविताओं और रामचरित मानस के पाठ से भी जुड़े रहे. पहले राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के आग्रह पर राष्ट्रपति भवन में जाकर सम्पूर्ण रामकथा का भी एक बार पाठ किया. 1952 में 15 अगस्त को उन्हें अपना झंडा गीत लाल किले में भी गाने का मौका मिला. लेकिन समय रहते वो अपनी ही सरकार से निराश भी हो गए और ये पंक्तियां लिख डालीं-
‘देख गतिविधि देश की मैं 
मौन मन से रो रहा हूं
आज चिंतित हो रहा हूं 
बोलना जिनको न आता था, 
वही अब बोलते है
रस नहीं वह देश के, 
उत्थान में विष घोलते हैं’
हालांकि, 1972 में लिखीं इन पंक्तियों के बाद 1972 में उन्हें लाल किले में सम्मानित किया गया, 1973 में सरकार ने उन्हें पदमश्री से नवाजा. जब पदमश्री समारोह में इंदिरा गांधी ने उन्हें फटी धोती में देखा तो काफी दुखी हुईं. लेकिन उनके घरवाले खुश थे कि उनको वो सम्मान तो मिला जिसके वो हकदार थे. 1977 में वो इस दुनियां से चले गए. आज जब वाकई में पूरे देश में नमो नमो हो रहा है, तो लोगों को उनके इस नमो गीत के बारे में जानना दिलचस्प बात होगी.

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