नई दिल्ली :मुजरा एक नृत्य है कला है जो मुगल काल से शुरू होकर ब्रिटश काल तक खूब चर्चा में रही हैं.और आज भी कोठों में और महफिलों में इस कला की नुमाइश की जाती है. बस केवल तरीका और संगीत अलग हो गया है.एक समय में तवायफों के लिए मुजरा बहुत खास हुआ करता था.लेकिन अंतिम मुजरा में हर तवायफ दुखी क्यों होती है.आईए जानते है.
किसी तवायफ का आखिरी मुजरा जब होता है तो वह खुश नहीं बल्कि बेहद दुखी होती है.अंतिम मुजरा एक रस्म होती है.इस रस्म के मुताबिक जिस दिन तवायफ का आखिरी मुजरा होता है उसके बाद वह कभी महफिल मं नाच नहीं सकती है.अंतिम मुजरा करने के बाद तवाइफ की बोली लगती है.उस बोली को जितने वाले की तवायफ एक तरह से गुलाम बन जाती है.इसलिए हर तवायफ अपने अंतिम मुजरे के रस्म के दौरान दुखी होती है क्योंकि इसके बाद उसकी जिंदगी बदल जाती है.तवायफ का अपने जिंदगी पर हक खत्म हो जाता है.
आखिरी मुजरे के बाद तवायफो का मेन काम केवल अपने मालिक को खुश करना होता है.इस रस्म को नथ उतराई भी कहते है.इस रस्म के बाद तवायफ केवल अपने मालिक के साथ फिजिकल रिलेशन बना सकती है.वह केवल उनके लिए महफिल सजाती है