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मैथिलीशरण गुप्त को कैसे मिली राष्ट्रकवि की उपाधि, जयंती पर पढ़े उनकी प्रसिद्ध कविताएं

Shree Maithili Sharan Gupt Jayanti:राष्ट्रकवि रहे मैथिलीशरण गुप्त की आज जयंती है। मैथिलीशरण गुप्त हिंदी के प्रसिद्ध कवि हैं। उनका जन्म 3 अगस्त 1886 में पिता सेठ रामचरण कनकने और माता काशी बाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ। मैथिलीशरण गुप्त को खड़ी बोली का पहला […]

Shree MaithiliSharan Gupt
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  • Last Updated: August 3, 2024 09:03:00 IST

Shree Maithili Sharan Gupt Jayanti:राष्ट्रकवि रहे मैथिलीशरण गुप्त की आज जयंती है। मैथिलीशरण गुप्त हिंदी के प्रसिद्ध कवि हैं। उनका जन्म 3 अगस्त 1886 में पिता सेठ रामचरण कनकने और माता काशी बाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ। मैथिलीशरण गुप्त को खड़ी बोली का पहला महत्वपूर्ण कवि माना जाता है। उन्होंने खड़ी बोली में उस समय लिखा, जब अधिकांश हिंदी कवि ब्रजभाषा बोली के पक्षधर थे।

कैसे मिली राष्ट्रकवि की उपाधि

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं के प्रभाव को देखते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि दी थी। उनकी रचनाएँ रामायण और महाभारत से प्रभावित थीं। गुप्त जी को उनके कालजयी साहित्य के लिए पद्म भूषण सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

साहित्य जगत में उन्हें प्यार और सम्मान के साथ दद्दा कहा जाता था। हर साल 3 अगस्त को उनकी जयंती पर कवि दिवस मनाया जाता है। आइए पढ़ते हैं उनकी कुछ कविताएँ।

  • यशोधरा के अंश

सिद्धि-हेतु स्वामी गये, यह गौरव की बात;
पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते;
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना,
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना,
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

  • चारुचंद्र की चंचल किरणें

चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झूम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥

पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥

  • दोनों ओर प्रेम पलता है

दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!

सीस हिलाकर दीपक कहता–
’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

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