नई दिल्ली: हर 12 साल में आयोजित होने वाला कुंभ मेला इस बार 13 जनवरी से शुरू हो रहा है। कुंभ के दौरान लाखों श्रद्धालुओं के साथ नागा साधु भी महाकुंभ का हिस्सा बनते होते हैं। लेकिन त्रिशूल, भस्म, और रुद्राक्ष की माला पहने ये साधु कुंभ मेले के बाद वे कहां चले जाते हैं जीवन कैसा होता है. यह हमेशा से एक रहस्य रहा है। आइए आज इन रहस्यों पर से पर्दा उठाते है और जानते है नागा साधुओं के जीवन से जुड़ी कुछ अहम बातें।
माना जाता है कि नागा साधु हिमालय, जंगलों और शांत क्षेत्रों में तपस्या और ध्यान करते हैं। कुंभ मेले के बाद वे अपने अखाड़ों या एकांत स्थलों में लौट जाते हैं। वहां वे कठोर साधना और धार्मिक शिक्षा के माध्यम से अपने आत्मिक विकास पर ध्यान केंद्रित करते हैं। बता दें नागा साधु कुंभ मेले में अपने अखाड़ों का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रमुख अखाड़ों में वाराणसी के महापरिनिर्वाण अखाड़ा और पंच दशनाम जूना अखाड़ा शामिल हैं। वहीं नागा साधु बनने की दीक्षा प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में होती है। इन स्थानों के आधार पर साधुओं के नाम अलग-अलग होते हैं, जैसे प्रयाग में दीक्षित साधुओं को “राजराजेश्वर”, उज्जैन में “खुनी नागा”, हरिद्वार में “बर्फानी नागा” और नासिक में “खिचड़िया नागा” कहा जाता है।
कुछ नागा साधु वाराणसी, हरिद्वार, ऋषिकेश, उज्जैन और प्रयागराज जैसे तीर्थ स्थलों पर निवास करते हैं। ये स्थान उनके लिए धार्मिक गतिविधियों और साधना के केंद्र होते हैं। यहां वे ध्यान, पूजा और धार्मिक आयोजनों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। इसके साथ ही नागा साधु पूरे देश में धार्मिक यात्राएं करते हैं और विभिन्न मंदिरों व धार्मिक आयोजनों में भाग लेते हैं। उनकी तपस्वी जीवनशैली उन्हें आम समाज से अलग बनाती है। हालांकि कुछ साधु गुप्त रहते हैं और समाज से पूरी तरह कटकर अपनी साधना में लीन रहते हैं।
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