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शिवपाल-अखिलेश की टक्कर में नेताजी ‘मैन ऑफ द मैच’ !

अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच मुकाबला कौन जीतेगा, इसका फैसला होना अभी बाकी है लेकिन दोनों के बीच जितने राउंड का 'खेल' हुआ है, उसे देखते हुए तो यही लगता है कि 'मैन ऑफ द मैच' नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव ही हैं.

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  • Last Updated: October 26, 2016 13:31:54 IST
नई दिल्ली. अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच मुकाबला कौन जीतेगा, इसका फैसला होना अभी बाकी है लेकिन दोनों के बीच जितने राउंड का ‘खेल’ हुआ है, उसे देखते हुए तो यही लगता है कि ‘मैन ऑफ द मैच’ नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव ही हैं. 
 
अखिलेश यादव की हैसियत
 
सोमवार यानी 24 अक्टूबर को लखनऊ में मुलायम सिंह यादव ने भरी महफिल में अखिलेश को फटकारा था. नेताजी ने कहा था- ‘तुम्हारी हैसियत क्या है?’ अगले ही दिन समाजवादी पार्टी के उसी दफ्तर में मुलायम ने खुद अखिलेश की हैसियत बता दी. प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा- ‘शिवपाल दोबारा मंत्री बनेंगे या नहीं, ये फैसला मुख्यमंत्री को करना है.’
 
साढ़े चार साल से साढ़े चार मुख्यमंत्री की सरकार चलाने का ताना सुन रहे अखिलेश का कद कितना बड़ा हो गया है, इसकी इससे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है कि खुद मुलायम को कहना पड़े कि सरकार के बॉस तो अखिलेश ही हैं. 
 
बवाल-दर-बवाल, शिवपाल बेहाल !
 
अखिलेश का कद बढ़ने के साथ-साथ ये भी साफ होता जा रहा है कि शिवपाल जितना बवाल मचाएंगे, उतने ही बेहाल होते जाएंगे. इस बात को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. 2012 में जब मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश को अपना उत्तराधिकारी बनाने का फैसला किया, तब सबसे ज्यादा विरोध शिवपाल ने ही किया था.
 
तब अखिलेश के लिए व्यूह रचना खुद मुलायम सिंह यादव ने की थी. वो जानते थे कि अखिलेश के लिए शिवपाल के विरोध के बीच सरकार चलाना मुश्किल होगा, क्योंकि संगठन पर शिवपाल की पकड़ मजबूत थी.
 
लिहाजा अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने के साथ-साथ प्रदेश अध्यक्ष पद की दोहरी जिम्मेदारी दी गई, ताकि संगठन पर भी अखिलेश की पकड़ बन जाए. अखिलेश यादव ने संगठन और सरकार, दोनों को अपने हिसाब से चलाना शुरू किया. इसका असर क्या हुआ, ये 15 अगस्त को इटावा में शिवपाल के बयान से पता चला.
 
शिवपाल को कहना पड़ा- ‘पार्टी के कार्यकर्ता अवैध शराब और ज़मीन कब्ज़ाने में जुटे हैं. अफसर मेरी बात नहीं सुन रहे. अगर ऐसा ही चला तो मैं इस्तीफा दे दूंगा.’ इससे पहले तोताराम कांड हो चुका था. मुख्तार अंसारी की पार्टी के विलय पर अखिलेश यादव ने चाचा को चित्त कर दिया था.
 
मुलायम ने अपनी भूमिका तय कर ली थी. वो विवाद बढ़ने पर शिवपाल के पाले में खड़े दिखते थे, अखिलेश को सार्वजनिक तौर पर फटकारते भी थे, लेकिन इस फटकार से अखिलेश की छवि ही निखर रही थी. साढ़े चार मुख्यमंत्री वाली धूल हर फटकार के साथ झड़ती चली गई. 
 
कहीं के नहीं रहे शिवपाल !
 
अब हाल ये है कि अखिलेश पूरी तरह सरकार पर नियंत्रण कर चुके हैं. बुधवार को राज्यपाल से मिलकर उन्होंने 205 विधायकों के समर्थन की चिट्ठी भी सौंप दी. इससे शिवपाल समर्थकों का ये भ्रम भी दूर हो गया होगा कि बहुमत तो शिवपाल के साथ है, क्योंकि नेताजी शिवपाल के साथ हैं. वृहद परिदृश्य में देखें तो आज की तारीख में शिवपाल के पल्ले कुछ नहीं है.
 
 
कैबिनेट से उनकी छुट्टी करने के बाद अखिलेश दोबारा मंत्री बनाने को तैयार नहीं हैं. उनके समर्थकों को भी कैबिनेट से बर्खास्त किया जा चुका है. अमर सिंह की खुली पैरवी करके उन्होंने आज़म खान जैसे उन सभी कद्दावर नेताओं को खुद से दूर कर लिया है, जो अमर सिंह को फूटी आंख पसंद नहीं करते. ले-देकर शिवपाल के पास प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी है, लेकिन यूपी में समाजवादी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष ही अगर सभी फैसले करेगा तो नेताजी क्या करेंगे?
 
 
वैसे भी 5 साल तक प्रदेश अध्यक्ष रहते अखिलेश ने अपने समर्थकों को संगठन में ठीक-ठाक जगह दे रखी है और अब ऐन चुनाव के मौके पर शिवपाल अगर अखिलेश के सभी समर्थकों को संगठन से बेदखल करते हैं, तो अपने लिए एक और गड्ढा ही खोदेंगे, क्योंकि चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से उन्हें नतीजों की जिम्मेदारी तो उठानी ही होगी.
 
अखिलेश की पौ-बारह
 
दूसरी ओर देखें तो हर मोर्चे पर अखिलेश की पौ-बारह ही नज़र आती है. उन्हें मुख्यमंत्री बनाए रखा जाएगा, ये बात नेताजी साफ कर चुके हैं. उनकी साफ-सुथरी छवि के साथ अब ये सहानुभूति भी जुड़ गई है कि युवा मुख्यमंत्री को परिवार के लोग ही काम नहीं करने दे रहे. ले-देकर एक बात है जो सबको खटक रही है कि अखिलेश को चुनाव में समाजवादी पार्टी का चेहरा बनाने का एलान करने के लिए नेताजी तैयार क्यों नहीं हैं?
 
 
गहराई से देखें तो नेताजी ने यहां भी अखिलेश का भला ही किया है. मौजूदा हालात में अखिलेश यादव की दोबारा सत्ता में वापसी मुश्किल दिख रही है, ऐसे में उन्हें चेहरा घोषित करने का मतलब होगा नतीजों की जिम्मेदारी थोपना. इसके उलट अगर अखिलेश को चेहरा बनाने का औपचारिक एलान नहीं भी होता है तो मुख्यमंत्री होने के नाते वोट तो उनके नाम और काम पर ही आएंगे.
 
नेता चाहे हारे, पिता तो जीत गया !
 
अब मौजूदा हालात में अगर शिवपाल और अखिलेश की अदावत खत्म नहीं होती और इससे समाजवादी पार्टी दो फाड़ हो जाती है, तो बतौर नेता मुलायम सिंह यादव की हार होगी, लेकिन अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव तो अभी से जीत चुके हैं.
 
 
जिस बेटे को उन्होंने साढ़े चार साल पहले अपना उत्तराधिकारी बनाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया था, आज वो बड़े-बड़े फैसले करने में सक्षम हो गया है, ये क्या पिता के लिए कम खुशी की बात है?
 
विवाद के बीच सरकार और जनाधार पर अखिलेश की पकड़ दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, इसे देखकर क्या पिता मुलायम सिंह यादव को खुशी नहीं होगी कि अब उनकी विरासत मजबूत बेटे के हाथों में है?

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